बड़ियारगढ़ की मिट्टी—जहाँ एक बच्चा जन्म लेता है, वहाँ की हवा ही उसकी आत्मा बन जाती है। दिवाकर भट्ट का बचपन भी उसी पहाड़ी हवाओं, उन्हीं कठिन ढलानों और उन्हीं सरल लोकजीवन के बीच पनपा। प्राथमिक शिक्षा पहाड़ की तलछट और लोकभूविज्ञान में डूबी हुई; और हाईस्कूल के बाद हरिद्वार की भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL) में तकनीकी प्रशिक्षण। एक संयंत्रकर्मी के रूप में नौकरी पक्की हो चुकी थी—पर पहाड़ के बेटे की किस्मत में कारखानों की मशीनों से ज़्यादा आंदोलन की मशालें थीं। जो रास्ता रोज़गार ने खोला, उसे भाग्य ने मोड़ दिया।
दिवाकर भट्ट—उत्तराखंड राज्य आंदोलन का वह नाम, जो किसी ऊँचे देवदार के पेड़ की तरह था। हवा का कोई झोंका हो, संघर्ष का कोई मोर्चा हो, भीड़ कितनी ही व्यस्त क्यों न हो—उनकी उपस्थिति उनके चेहरे से नहीं, उनकी आवाज़ और प्रतिबद्धता से पहचानी जाती थी। 90 के दशक में उनकी ऊँचाई ऐसी थी कि आंदोलन के किसी भी मोर्चे पर खड़े होकर भी वे भीड़ में खोते नहीं थे—बल्कि भीड़ उनकी वजह से दिखती थी। पर विडंबना यह कि जिस राज्य के लिए उन्होंने जीवन का बड़ा हिस्सा खपा दिया, उसके गठन के बाद 2002 के पहले चुनाव में देवप्रयाग से UKD के प्रत्याशी के रूप में पराजय का सामना करना पड़ा। मानो पहाड़ की जीवनशैली का एक और सबक था—ऊँचा चढ़ने के लिए पहले एक गहरी घाटी उतरनी पड़ती है।
समय धीरे-धीरे पर्वतीय पगडंडियों की तरह आगे बढ़ता रहा। 2005–2006 में चंद्रकूट पर्वत पर जब परिसीमन का विवाद उठा, तो दिवाकर भट्ट फिर जनसरोकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़े थे—इस बार भूख हड़ताल पर। वह हड़ताल उनकी तपस्या का पुनर्जन्म थी—जैसे आंदोलनकारी आत्मा फिर से जाग उठी हो। उन्हीं दिनों मैं सहारा टीवी के लिए चंद्रबदनी की कठिन चढ़ाई चढ़ रहा था। उनकी आँखों की आग, उनकी आवाज़ की दृढ़ता, उनकी भूख हड़ताल की तड़प—सब कैमरे में उतर रहा था। वे बेहद प्रसन्न थे। मुस्कुराकर बोले—“पहाड़ में सच दिखाने वाला पहला चैनल तुम लोग ही तो हो।” सच में, उस समय सहारा टीवी पर्वतीय अंचल का पहला 24 घंटे प्रसारित होने वाला चैनल था और दिवाकर जैसे आंदोलनकारियों को पहली बार जनता तक अपना सच सीधे पहुँचाने का मंच मिला था।
इसी दौर में उनके जीवन में एक ऐसा आघात आया जिसने पूरे क्षेत्र को स्तब्ध कर दिया—उनकी धर्मपत्नी का आकस्मिक निधन। दुःख इतना गहरा कि मानो किसी पहाड़ की चोटी अचानक खिसककर घाटी में समा गई हो। लेकिन उसी शोक ने लोगों के हृदयों को दिवाकर भट्ट से जोड़ दिया। लोग उन्हें एक राजनेता नहीं, एक अपना-सा आदमी मानने लगे—जो दुःख भी साझा करता है, और संघर्ष भी। शायद इसी संवेदना की धारा ने मिलकर उन्हें 2007 में देवप्रयाग भेजा—विधानसभा तक, जनता के प्रतिनिधि के रूप में।
काउंटिंग वाले दिन मैं (बतौर प्रमुख पत्रकार सहारा टीवी )पूरे समय आईटीआई भवन नई टिहरी में उनके साथ था। दोपहर तक लोग उन्हें बधाई दे चुके थे, अन्य पांच विधायकों की उसी परिसर में काउंटिंग चल रही थी। लेकिन राजनीति कभी एकरेखीय नहीं चलती। जैसे-जैसे उत्तराखंड की टीवी पर राजनीतिक तस्वीर बदलती, वैसे-वैसे दिवाकर जी के चेहरे पर उम्मीद, संदेह और मुस्कान की हल्की किरणें आती-जाती रहीं। अंततः वही हुआ जिसकी वे मन ही मन चाह रखते थे—किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। हालांकि भाजपा को 35 सीटों का समर्थन था, लेकिन यूकेडी के 3 और निर्दलीय 3 विधायक सत्ता समीकरण में निर्णायक थे। दिवाकर भट्ट हमेशा कहते थे—“पहाड़ का स्वभाव ही मिश्रित सरकारों का है, जहाँ क्षेत्रीय दलों की भूमिका अनिवार्य होती है।” उसी चुनाव में नरेंद्रनगर से ओम गोपाल रावत भी उक्रांद से जीते—टिहरी जनपद से दो-दो यूकेडी विधायक होना अपने आप में आंदोलन की जीत थी।
इसके बाद राजनीति ने उनके लिए एक नया अध्याय खोला। भुवन चंद्र खंडूड़ी पहले से ही उन्हें मंत्री बनाने के इच्छुक थे। वे कैबिनेट में एक अहम चेहरे के रूप में उभरे। पर राजनीति की हवा कभी स्थिर नहीं रहती—कभी शीतल, कभी तूफ़ानी। 2009 में जब खंडूड़ी को हटाकर रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को मुख्यमंत्री बनाने की हलचल शुरू हुई, तो कैंट रोड के राजनीतिक गलियारों में बेचैनी की धड़कनें सुनाई देती थीं। दिवाकर भट्ट धीमे स्वर में सिर्फ इतना बोले—“यह ठीक नहीं है, किसी मुख्यमंत्री को इस तरह बीच में हटाना…” लेकिन परिस्थितियाँ बदल गईं, और निशंक ने भी उन्हें अपने मंत्रिमंडल में बरकरार रखा।
2011 में जब खंडूड़ी दोबारा मुख्यमंत्री बने, तब दिवाकर भट्ट तीसरी बार मंत्री बने। पाँच वर्षों में तीन बार शपथ लेना—यह किसी आंदोलनकारी के लिए अविश्वसनीय उपलब्धि थी। राजस्व से लेकर खाद्य विभाग तक, वे कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रभारी रहे। देवप्रयाग से देहरादून तक उनकी पकड़ मजबूत होती चली गई।
2012 की दस्तक के साथ चुनाव फिर सामने था। भाजपा ‘खंडूड़ी है जरूरी’ के नारे के साथ उतरी। लंबे असमंजस के बाद दिवाकर भट्ट को टिकट मिला। वह शाम आज भी आँखों में तैरती है—वह अकेले ही भाजपा कार्यालय गए, टिकट लिया और शांत मन से लौट आए। पूरे जिले में हलचल फैल गई। पर राजनीति केवल टिकट का खेल नहीं—2012 में उन्हें निर्दलीय मंत्री प्रसाद नैथानी से पराजय मिली, जो बाद में विजय बहुगुणा और हरीश रावत सरकारों के बेहद प्रभावशाली मंत्री बने।
इसके बाद 2017 और 2022—दोनों चुनाव उन्होंने उक्रांद के टिकट पर लड़े और दोनों में पराजित हुए। देवप्रयाग की धरती पर वे पाँच बार चुनाव लड़े—एक जीत और चार पराजय। लेकिन यह भी सच है कि यदि 2017 या 2022 जैसी भाजपा की भारी बहुमत की लहर 2007 में होती, तो शायद दिवाकर भट्ट कभी मंत्री ही न बन पाते। पर नियति कभी-कभी आंदोलनकारियों पर विशेष कृपा करती है—उन्हें वह मिलता है जो केवल चुनावी गणित से नहीं, संघर्ष की विरासत से तय होता है।
राजनीति में उनके कदम पंचायतों से उठे थे। 1983 में वे कीर्तिनगर के ब्लॉक प्रमुख बने—और इतने लोकप्रिय कि लगभग दस वर्षों तक यह पद संभाला। 1996 में जिला पंचायत सदस्य बने। जिला पंचायत अध्यक्ष बनने का सपना था, पर रतन सिंह गुनसोला और बलबीर सिंह नेगी का समीकरण भारी पड़ा और अध्यक्ष रतन सिंह गुनसोला बने, जिनकी आर्थिक पकड़ बहुत मजबूत मानी जाती थी।
उत्तराखंड क्रांति दल—राज्य आंदोलन की नींव रखने वाली पार्टी—आंतरिक कलह से बार-बार टूटती रही। सबसे बड़ा विभाजन दिसंबर 2010 में हुआ, जब भाजपा सरकार को बाहर से समर्थन देने के मुद्दे पर UKD दो हिस्सों में बंट गई। त्रिवेंद्र सिंह पंवार नेतृत्व में समर्थन वापस लेने का निर्णय हुआ, पर मंत्री दिवाकर भट्ट सत्ता में बने रहना चाहते थे। यहीं से UKD(P) और UKD(D) दो चेहरे बन गए। 2012 में चुनाव आयोग ने मूल नाम और प्रतीक ‘कुर्सी’ फ्रीज कर दिया। दोनों धड़ों ने अलग-अलग चुनाव लड़े, वोट बंट गए, और यूकेडी का जनाधार बिखरता चला गया। 2017 में एकता का प्रयास हुआ, मगर जीवन की कई दरारें जोड़ने के बाद भी पूरी तरह भर नहीं पातीं—वैसा ही कुछ पार्टी के साथ हुआ।
और फिर 25 नवंबर 2025—वह तारीख, जब हरिद्वार में 79 वर्ष की आयु में दिवाकर भट्ट इस दुनिया से विदा हो गए। उनका जाना केवल एक व्यक्ति का जाना नहीं—एक आंदोलनकारी परंपरा का टूटना था। यह यात्रा एक नेता की नहीं, एक तपस्वी की थी—जो भूख हड़ताल भी करता था, जेल भी देखी, पहाड़ के दुर्गम गाँवों में आंदोलन भी खड़े किए, और सत्ता में बैठकर मंत्रालय भी संभाले। उनका जीवन संघर्ष, अवसर, विडंबना और उपहार—इन चारों के मेल का अद्भुत दस्तावेज़ था। कठोर भी थे, कोमल भी। उग्र भी, संयमी भी। आंदोलनकारी भी, और मंत्री भी। दिवाकर भट्ट का जीवन उत्तराखंड की राजनीति का एक चलता-फिरता इतिहास था—बिना अलंकरण, बिना आडंबर, बिना विराम।
उन्होंने इस राज्य के लिए लाठियाँ खाईं, भूख सही, जनांदोलन उठाए, सत्ता में रहकर फैसले किए—और अपनी जिद, अपनी सरलता और अपने समर्पण से वह सम्मान पाया जिसे आज पूरा उत्तराखंड नम आँखों से याद कर रहा है। उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है—क्योंकि पहाड़ ने सिर्फ एक नेता नहीं खोया, बल्कि अपना एक जिद्दी, सच्चा, अदम्य सपूत खो दिया।
Reported By: Shishpal Gusain












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